बोलों में, बातों में,
दिन-दुपहर, रातों में
कितने-कितने अरण्य जीते हैं।
आदत की तरह
हो गया है
भीगते हुए
जलते रहना
शब्दों की
त्योरियाँ चढ़ाते
भीतर-बाहर
बस चुप रहना
फूलों-पत्तों से
होकर तटस्थ
कैसा-कैसा अनन्य जीते हैं।
हिंसाएँ, शांति-पाठ
त्राटक में
शामिल
कैसा अंतर्विरोध
नाटक में
शामिल।
टूटी तलवारों की
मूँठ लिए
अपने में धन्य-धन्य जीते हैं।